भारत का समस्त वस्त्र उद्योग हमारी बुनकर और अन्य ज्ञातियों पर निर्भर था तथा भारत के गाँव गाँव में वस्त्रों के मामले में देश आत्मनिर्भर था |
भूमिका :
प्राचीनकाल में भारत का वस्त्र उद्योग अन्य सभी देशों से बेहतर एवं उन्नत माना जाता था | माना जाता है की भारत को सोने की चिड़िया बनाने के पीछे वस्त्र उद्योग का बहुत बड़ा हाथ था | एक समय था जब सारी दुनिया को लूटने वाले रोमन साम्राज्य के लोग भी तराजू में एक तरफ सोना रखते थे और दूसरी तरफ भारतीय कपडा और बराबर तौलकर सोना हमें दे दिया जाता था | यहाँ तक की मुग़लों और अंग्रेजों के समय तक ढाका का मलमल और मालवा और बनारस से सबसे बेहतर वस्त्र बुनकर विदेशों में निर्यात किये जाते थे | भारत में वस्त्र बनाने का कार्य कितना पुराना है,इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है की ऋग वेद के दूसरे मंडल में वर्णित ऋषि गृत्स्मद को प्रथम वस्त्र बनाने का श्रेय जाता है | वैदिक आख्यानों में वर्णन आता है कि सर्वप्रथम ऋषि गृत्स्मद ने कपास का पेड़ बोया और अपने इस प्रयोग से दस सेर कपास प्राप्त की तथा इस कपास से सूत इन्होने बनाया। इस सूत से वस्त्र कैसे बनाना, यह समस्या थी। इसके समाधान के लिए उन्होंने लकड़ी की तकली बनायी। वैदिक भाषा में कच्चे धागे को तंतु कहते हैं। तंतु बनाते समय अधिक बचा हिस्सा ओतु कहा जाता है। इस प्रकार सूत से वस्त्र बनाने की प्रक्रिया ऋषि गृत्स्मद ने दी। इसके बाद सूती से आगे बढ़कर रेशम, कोशा आदि के द्वारा वस्त्र बनने लगे। बने हुए वस्त्रों, साड़ियों आदि पर सोने,चांदी आदि की कढ़ाई, रंगाई का काम भी होने लगा। वस्त्रों को भिन्न-भिन्न प्राकृतिक रंगों में रंग कर तैयार किया जाने लगा और इस तरह भारतीय वस्त्रों का सारे विश्व में निर्यात होना शुरू हो गया । यहां के सूती वस्त्र तथा विशेष रूप से बंगाल की मलमल ढाका की मलमल के नाम से जगत् में प्रसिद्ध हुई। इनकी मांग प्राचीन ग्रीक, इजिप्ट और अरब व्यापारियों द्वारा भारी मात्रा में होती थी और ये व्यापारी इसका अपने देश के विभिन्न प्रांतों व नगरों में विक्रय करते थे।
भारतीय वस्त्र-उद्योग का विदेशियों द्वारा वर्णन :
कुछ विदेशियों ने भारत के वस्त्रों के बारे में वर्णन करते हुए जो लिखा है, वह नीचे वर्णित है –
सत्रहवीं सदी के मध्य में भारत भ्रमण पर आने वाले फ्रांसीसी व्यापारी टेवर्नीय सूती वस्त्रों का वर्णन करते हुए लिखता है ‘वे इतने सुन्दर और हल्के हैं कि हाथ पर रखें तो पता भी नहीं लगता। सूत की महीन कढ़ाई मुश्किल से नजर आती है।‘ वह आगे कहता है कि कालीकट की ही भांति सिकन्ज (मालवा प्रांत) में भी इतना महीन ‘कालीकट‘ (सूती कपड़े का नाम) बनता है कि पहनने वाले का शरीर ऐसा साफ दिखता था मानों वह नग्न ही हो।
बिना मशीनों और बड़े उद्योगों के किस तरह सतत विकास किया जा सकता है ,भारत के गाँव और लघु उद्योग इसका अद्भुत उदाहरण हुआ करते थे |
इसी तरह टेवर्नीय अपना एक और संस्मरण लिखता है की – ‘एक पर्शियन राजदूत भारत से वापस गया तो उसने अपने सुल्तान को एक नारियल भेंट में दिया। दरबारियों को आश्चर्य हुआ कि सुल्तान को नारियल भेंट में दे रहा है, पर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उस नारियल को खोला तो उसमें से ३० गज लम्बा मलमल का थान निकला।‘
ऐसे ही सर जोसेफ बेक को मि. विल्कीन्स ने ढाका की मलमल का एक टुकड़ा दिया। बेक कहते हैं कि यह विगत कुछ समय का वस्त्र की बारीकी का श्रेष्ठतम नमूना है। बेक ने स्वयं जो विश्लेषण, माप उस वस्त्र का निकालकर इंडिया हाउस को लिखकर भेजा, वह निम्न प्रकार है- “मि. बेक कहते हैं कि विल्कीन्स द्वारा दिए गए टुकड़े का वजन-३४.३ ग्रेन था (एक पाउण्ड में ७००० ग्रेन होते हैं तथा १ ग्राम में १५.५ ग्रेन होते हैं।), लम्बाई-५ गज ७ इंच थी, इसमें धागे-१९८ थे। यानी धागे की कुल लम्बाई-१०२८.५ गज थी। अर्थात् १ ग्रेन में २९.९८ गज धागा बना था। इसका मतलब है कि यह धागा २४२५ काऊंट का था। आज की आधुनिक तकनीक में भी धागा ५००-६०० काऊंट से ज्यादा नहीं होता।“
१८३५ में एडवर्ड बेञ्ज ने लिखा ‘अपने वस्त्र उद्योग में भारतीयों ने प्रत्येक युग के अतुलित और अनुपमेय मानदंड को बनाए रखा। उनके कुछ मलमल के वस्त्र तो मानो मानवों के नहीं अपितु परियों और तितलियों द्वारा तैयार किए लगते हैं।
इस तरह के कई उदाहरण है जो भारत के बुनकरों एवं कारीगरों की कार्य कुशलता एवं कारीगरी के गुणगान करते नज़र आते हैं | भारत का समस्त वस्त्र उद्योग हमारी बुनकर और अन्य ज्ञातियों पर निर्भर था तथा भारत के गाँव गाँव में वस्त्रों के मामले में देश आत्मनिर्भर था | बिना मशीनों और बड़े उद्योगों के किस तरह सतत विकास किया जा सकता है , भारत के गाँव और लघु उद्योग इसका अद्भुत उदाहरण हुआ करते थे |
अंग्रेजों का कुचक्र:
अंग्रेजों के समय में जब भारत का कपडा ब्रिटेन पहुंचा तो वहाँ की जनता इसके पीछे पागल हो गयी तथा सारा बाज़ारभारत के कपड़ों से भर गया , नौबत यहाँ तक आ गयी की वहाँ के लोगों ने उनके यहाँ का कपडा पहनना बंद कर दिया | इससे तंग आकर वहाँ के व्यापारियों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया जिसके फलस्वरूप १७०० में भारत, चीन और पर्शिया से आने वाले कपड़ो पर रोक लगा दी गयी | इसके बाद भी जब लोग नहीं माने तो भारत से आये कपड़ों को ब्रिटेन में इकठ्ठा करके बाकी यूरोप में बेचा जाने लगा तथा भारतीय कपडे की नक़ल करके ब्रिटेन के कुछ बुनकर उससे कम स्तर का कपडा बनाना सीख गए और ब्रिटेन में वो बेचने लगे |
आने वाले तीन दशकों में अंग्रेजों ने चरखे को मशीन का रूप देने का प्रयास शुरू कर दिया एवं अंत में जेनी के नाम से एक मशीन और मिल स्थापित करली गयी |
इसके बाद भी अंग्रेजी व्यापारियों का मन नहीं माना तो १७२१ में ब्रिटिश संसद ने बिल पास करके आम आदमी तथा व्यापारियों पर जुर्माना लगाना शुरू कर दिया | जिसके पास भी भारतीय सूत मिल जाता उसपर भारी जुर्माना लगाया जाता था | आने वाले तीन दशकों में १७३३ से १७६५ के बीच अंग्रेजों ने चरखे को मशीन का रूप देने का प्रयास शुरू कर दिया एवं अंत में जेनी के नाम से एक मशीन और मिल स्थापित करली गयी | [i]हलाकि इसकी भी गुणवत्ता भारतीय वस्त्र से कम ही थी मगर इसमें एक साथ बहुत सा वस्त्र बनाने की क्षमता थी | इसका प्रयोग अंग्रेजों ने तेजी से शुरू कर दिया एवं भारतीय वस्त्र उद्योग पर भारत में कई तरह के कर लगा दिए एवं ब्रिटेन में इन वस्त्रों को बेचने पर रोक लगवा दी गयी | धीरे धीरे भारत का व्यापार दुनिया से कम होने लगा और अंग्रेजों का व्यापार तेजी से फैलने लगा |
भारतीय व्यापार पर कर लगाना , भारतीय माल को यूरोप में ना बिकने देना आदि कानूनों के अलावा बंगाल के कई बुनकर और कलाकारों से भी मार पीट कर उनका धंधा जबरन बंद करवाने का काम ब्रिटिश ने किया | इसके साथ ही इन्होने इतना अधिक कर भारत के लघु उद्योगों और बुनकर समाज के ऊपर लगाया की भारत का व्यापार उद्योग और निर्यात का सारा ढांचा चरमरा गया | इसके बाद अंग्रेजों ने विदेशों के साथ साथ भारतीय बाज़ार को भी अपने कपड़ो से भर दिया |
अमेरिकन क्रांति के समय भारत का वस्त्र उद्योग फिर से थोडा ऊपर उठा पर अंग्रेजों की पक्षपाती नीतियों और आधुनिक मशीनों के कारण उतनी उन्नति नहीं कर पाया जितनी प्राचीन समय में की थी|
आधुनिक भारत :
‘जितने हाथ उतना काम’ सिद्धांत की अनदेखी करके भारत ने ‘जितना काम उतने हाथ’ का सिद्धांत अपना लिया था |
आज़ादी के बाद भारत में चूँकि अंग्रेजों के कर के नियम नहीं हटाये गए अतः छोटे उद्योग और बुनकर धीरे धीरे समाप्त होते चले गए | भारत के वस्त्र व्यापार का एक बड़ा हिस्सा पूर्वी – पकिस्तान ( वर्तमान बांग्लादेश ) में चला गया | यही नहीं अंग्रेजों और रूस की औद्योगीकरण की नीति अपनाने के कारण कारखानों से कपडा बनना शुरू हो गया | इससे नेहरु मॉडल तो सफल हुआ मगर गांधीजी का सपना अधुरा रह गया क्योंकि ‘जितने हाथ उतना काम’ सिद्धांत की अनदेखी करके भारत ने ‘जितना काम उतने हाथ’ का सिद्धांत अपना लिया था | अंग्रेजों तथा यूरोप के देशों में चूँकि लोग कम रहते थे और उत्पादन ज्यादा करना होता था अतः वहाँ मशीनी मॉडल कारगर सिद्ध हुआ मगर भारत का प्राचीन मॉडल विकेंद्रीकरण का मॉडल था जिसमे करोडो लोगों को हर गाँव में रोजगार दिया जाता था | मगर भारत में भी कारखाने और मशीनीकरण के मॉडल को अपनाने के कारण हुनरमंद कारीगर, कलाकार और बुनकर बेरोजगार होते चले गए तथा कईयों ने आत्महत्या कर ली या पेशा छोड़कर मजदूरी करने लगे |
आज समय है भारत के लघु उद्योगों और कलाकारों को समझने का तथा अंग्रेजों के लगाये करों को हटाने का | यदि भारत की सरकार हमारी जातियों के प्राचीन हुनर को समझकर उन्हें बढ़ावा देने का काम करती है तो ना सिर्फ भारत के करोड़ों लोगों को रोजगार मिलेगा बल्कि बिना ज्यादा औध्योगिक लागत के भारत फिर से खड़ा हो जाएगा | असल में स्किल डेवलपमेंट इसी दिशा में होना चाहिए अन्यथा सभी को अंग्रेजी और कंप्यूटर सिखाकर हम सिर्फ बड़े शहरों में शौपिंग मॉल का चौकीदार या दूकान पर खड़ा रहने वाला अटेंडेंट बना कर छोड़ देंगे | हमें आज अंग्रेजों से जीतना है तो खेल उनका नहीं हमारा चुना हुआ होना चाहिए |
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